Wednesday, October 5, 2016

चीन का माल नहीं ख़रीदना है तो इन्हें भारत सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि वह चीन से आयात पर प्रतिबंध लगा दे।

रेहड़ी पटरी पर बैठ कर सस्ता माल बेचने वालों
ध्यान से सुनो।मुझे पता है आपके पास ख़बरों का कूड़ेदान यानी अख़बार पढ़ने और चैनल देखने का वक्त नहीं है।जिनके पास फेसबुक और ट्वीटर पर उल्टियाँ करने का वक्त हैं वो आपके माल की जात पता करना चाहते हैं।ज़ोर शोर से अभियान चला रहे हैं कि इस दिवाली चीन का माल नहीं ख़रीदेंगे।पाकिस्तान का साथी चीन को सबक सीखाने के लिए इन लोगों ने आपके पेट पर लात मारने की योजना बनाई है।
थोक बाज़ार से अपना माल खरीद कर आप अपने अपने ज़िलों और क़स्बों की तरफ निकल चुके होंगे। चीन का माल आपकी गठरी में आ गया होगा कि इस दिवाली कुछ कमाकर बच्चों के नए कपड़े बनवायेंगे। बच्चों की फीस भरेंगे। फर्ज़ी राष्ट्रवादियों की नज़र आपकी कमाई ख़त्म करने पर है। ये लोग नुक्कड़ पर बैठी उस महिला की कमाई पर नज़र गड़ाए बैठें जो हज़ार दो हज़ार की लड़ियाँ फुलझड़ियाँ बेचकर अपने नाती-पोतों के लिए कुछ कमाना चाहती है।
चीन का माल नहीं ख़रीदना है तो इन्हें भारत सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि वह चीन से आयात पर प्रतिबंध लगा दे। भारत में काम कर रही चीन कंपनियों को भगा दे। कारोबारियों का गला पकड़े कि वे चीन का माल न लायें।अरबों रुपये उनके भी दाँव पर लग गए हैं मगर वे तो छोटे दुकानदारों को बेच कर निकल चुके हैं। फिर जो माल बचा है उसे मंडी में जला कर दिखा सकते हैं कि वो राष्ट्रवाद के आगे पैसे की परवाह नहीं करते। क्या ऐसा होगा? कभी नहीं होगा लेकिन मोहल्ले में जो आपने ‘पुलिस को कुछ ले देकर’ पटरियाँ लगाई हैं कि इस दिवाली कुछ कमायेंगे,उन पर इन लोगों की नज़र है।
चीन के ख़िलाफ़ अभियान ही चलाना है तो यह भी चले कि किस किस कंपनी का निवेश चीन में है।पूरी लिस्ट आए कि इनका माल नहीं ख़रीदेंगे और ख़रीद लिया है तो उसे कूड़ेदान में फेंक देंगे।उन कंपनियों से कहा जाए कि अपना निवेश वापस लायें ।अपने माल का आर्डर कैंसल करें।भारत में जहाँ जहाँ चीन है उसे खदेड़ देना चाहिए।सरकार से बयान दिलवाना चाहिए कि वे चीन के माल का बहिष्कार कर रहे हैं इसलिए कंपनियाँ वहाँ के लोगों से कारोबार न करें। वहाँ से माल लाकर यहाँ के लोगों को न बेचें।
क्या ऐसा होगा? राष्ट्रवाद के नाम पर सिर्फ ग़रीब को ही जान और माल का इम्तहान क्यों देना पड़ता है? आपने जो माल ख़रीदा है वो बेशक चीन का होगा लेकिन पैसा तो आपका है। उस माल का मालिकाना हक़ आपका है। अगर इन फेसबुकिये राष्ट्रवादियों को चीनी माल से इतनी नफरत है तो ये अपने घरों से पहले से ख़रीदे गए चीन माल बाहर निकालें और उनकी होलिका जला दें।अपना स्मार्ट फोन क्यों नहीं शहर के मुख्य चौराहे पर फेंक देते हैं?सिर्फ दिवाली के वक्त ग़रीब दुकानदारों के ख़िलाफ़ ये साज़िश क्यों हो रही है?ये राष्ट्रवाद नहीं है बल्कि पूरी योजना है कि कैसे इसी के नाम पर ग़रीबों के सवाल को ग़ायब कर दिया जाए। ग़रीब को ही ग़ायब कर दिया जाए।
अगर चीन के माल का विरोध करना ही है तो ऐसा करने जा रहे उन लोगों से गुज़ारिश है कि चीन माल बेच रहे दुकानदारों को घाटा न होने दें।उनसे माल ख़रीदें और फिर होलिका जला दें।जिन लोगों से आप माल लेकर आये हैं,उनका तो काम हो गया है।उन्हें तो पैसा मिल गया है। राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी हर कमियों को ढँकने वाले ये लोग कैसे आपकी पेट पर लात मार सकते हैं? सरकार ने चीन से कारोबार करने के लिए बहुत सी नीतियाँ बनाई होंगी। क्या वे सब भी रद्द की जा रही हैं?
सावधान रहियेगा। चीन के नाम पर आपका घर जलाया जा रहा है। अमरीका ने जापान के दो शहरों पर परमाणु बम गिरा कर लाखों लोगों को मार दिया था। वही जापान आज अमरीका को ट्योटा कार बेच रहा है। पाकिस्तान से अभी तक बाकी कारोबार चल ही रहा है। उसके रद्द होने का औपचारिक एलान नहीं हुआ है तो चीन के माल के बहिष्कार क्यों हो रहा है?
इसलिए जो ग़रीब हैं वो यह समझें कि कुछ लोग राष्ट्रवाद के नाम पर वीडियो गेम खेल रहे हैं।आपकी आवाज़ वैसे ही मीडिया से बेदख़ल कर दी गई है।अब आपको पटरी से भी ग़ायब करने के लिए कभी चीन तो कभी पाकिस्तान के माल के विरोध का शिगूफ़ा छोड़ा जा रहा है।
आपका
रवीश कुमार
मैं जो लिखने जा रहा हूँ, उसका कारण मूल कारण एक प्रेस विज्ञप्ति है जो २८ सितम्बर २०१६ को जारी हुई और मैंने उसे शेयर भी किया था|
यह मूल प्रेस विज्ञप्ति प्रेस सूचना ब्यूरो की साईट पर उपलब्ध है| यह उस तथ्य के बारे में है जिसे हम सब जानते और उसका फेसबुकिया विरोध भी करते हैं| दिवाली के समय विदेशी विशेषकर चीन के पटाखों की बिक्री धूम धड़ाके से होती है| सब लोग आसानी से खरीदते भीं हैं| मगर चिंताजनक रूप से यह विज्ञप्ति कहती है - सरकार को विदेशी मूल के पटाखों की बड़ी मात्रा में आयात की सूचना/शिकायत मिलती हैं| शायद यह सूचना और शिकायत प्राप्त करना सरकार के लिए रोजमर्रा का काम है|
आगे यह विज्ञप्ति कहती है – इन पटाखों का आयात रिस्ट्रिक्टेड है और भारत सरकार ने आज तक पटाखों के आयात का कोई लाइसेंस किसी को भी नहीं दिया है| कम से कम २००८ में नियम बनने के बाद से तो किसी को यह लाइसेंस नहीं मिला है|
आश्चर्यजनक रूप से यह विज्ञप्ति विदेशी मूल के पटाखों की बिक्री की सूचना निकट के पुलिस थाने को देने की कहकर समाप्त हो जाती है|
अगर किसी को पटाखा आयात की अनुमति नहीं तो उनका आयात कैसे होता है? इसके उत्तर में विज्ञप्ति कहती है कि झूठे डिक्लेरेशन देकर आयात किया जाता है| किस तरह के यह झूठ होते होंगे? क्या उन झूठों को पकड़ने की कोई कार्यवाही हुई होगी? क्या उन झूठों पर विश्वास करने के लिए सीमा शुल्क अधिकारीयों को साम – दाम से राजी किया जाता है या वो भी देश के जनता की तरह भोले भाले हैं?
जब झूठे डिक्लेरेशन देकर पटाखे आयात हो जाते हैं तो राम जाने क्या क्या आयात हो जाता होगा|
आगे बहुत से प्रश्न है मगर मेरी अपनी सीमायें है... कम लिखा ज्यादा समझना की तर्ज पर लिखना बंद करना चाहता हूँ|

दोस्त मुझे नहीं पता की झालर अच्छा या दिया ..... इतना जरूर पता है की मध्यमवर्गीय परिवार से होने के नाते हमारी जिंदगी कमाई से कम और बचत से जायदा चलती है। दिया जलाने के लिए दिये मे तेल डालना पड़ता है और अगर बाजार का अनुभव मेरा सही है तो सबसे सड़ा हुआ तेल भी 130 रुपये लीटर है। तो क्या खाएं और क्या जलाएँ। ये दर्द वो ही समझ सकता है जो महीने आखिरी दिन बड़ी बेसबरी से तनख्वा का इंतज़ार करता है ताकि घर मे खाने का जो स्वाद महीने के आखिर मे खतम हो चुका है वो थोड़ा बढ़ जाए ......... अब बात थोड़ा झालर की तो मई अगर सही समझता हूँ तो प्रतिबंध लगा कर समस्या का समाधान नहीं दिखता मुझे ... अगर ऐसा होता तो जेल जाने वाला व्यक्ति सुधार जाता और मार खाकर हर बच्चा सीख जाता या सा देने से लोग सुधार जाते, अगर पेड़ बड़ा हो रहा है तो डलियाँ काटने से उसके बढ्ने पर कोई खास असर नहीं होगा काम जड़ों पर करना होगा शायद यही बात रवीश भाई कहना चाहते हैं। अगर चीन जैसे देश का बहिष्कार करना है तो खुद के समान को सस्ता करना शुरू करो उसे लोगों के पहुँच तक लेजाओ लोग खुद ब खुद अपने घर का समान खरीदना शुरू कर देंगे। घर मे दाल खानी महंगी होने लगेगी तो लोग बाहर की सस्ती घटिया दाल ही खाएँगे क्यों की और कोई चारा ही नहीं है .... दिया बनाना और फिर उसे बेचने मे कितनी मुश्किलें है और किसी भी थोक की दुकान मे जादा समान खरीद कर छोटे डुंकान मे आसानी से बेचने के अंतर को अगर नहीं समझेंगे तो शायद ऐसे ही तुलना करेंगे जैसे कर रहे हैं .... दिया बनाने के लिए एक खास तरह की बालू वाली मिट्टी चाहिए फिर उसे पूरे दिन भीगा कर मसल कर फिर गीला छोड़ कर फिर मसल कर तैयार किया जाता है उसके बाद उसे चाक पर चढ़ा कर कच्चा दिया बनाते हैं फिर कोयले के चूल्हे पर पकने के लिए डालते हैं कुछ घंटे पकने के बाद वो बिकने के लिए तैयार होता है। हम खुद को सोचें अगर हमे दिया बनाकर बेचना पड़े और झालर खरीद कर बेचना हो तो हम खुद क्या चुनेंगे ये ध्यान मे रखते हुए की ये मौसम केवल साल मे एक ही बार आता है ........... रवीश की बात की गहराई को समझना होगा ... सरकार की क्या मंशा है ये मई नहीं बता सकता लेकिन मोदी जी की आड़ लेकर जो लोग अपना धंधा चमकाना चाहते हैं उनके षड्यंत्र को समझना होगा ... मोदी जी के नाम से internet पर आने वाली हर पोस्ट उनके विचार नहीं बताती ....... अगर हम ये नहीं समझेंगे तो जिस तरह विज्ञान का गलत इस्तेमाल होता है उसी तरह मोदी जी के अच्छे कामों का गलत इस्तेमाल करने को हमारा सहयोग मिल जाएगा 

SHABD

1.पूनम माटिया टुकड़ो में बाँट देता है , पूरा होने नहीं देता । मुमकिन है जीत जाऊँ मैं , जिस लम्हा जोड़ लूँ ख़ुद को ।
2. डॉ अंजू सुमन साधक ममता की अब हो गयी, है ये कसी शक्ल । मात पिता करने लगे, आरुषियों के कत्ल ।।
3. मनजीत कौर मीत” “माँ दिल डरता है अब तो , अब तो सुन खबरे बदकारी की , कोमल कमसिन तू क्या जाने नजरें इन मक्कारों की ।
4. सुनीता पाहूजा मुझे पंख देकर उड़ना सिखाया तुमने, छु लूँ आसमान ये हौसला दिलाया तुमने , अब मेरी इन ऊंचाइयों से डरना न तुम , अब मेरे ये पंख देखो कतरना न तुम ।
5. “सृजन सेकी संपादिका मीना पाण्डेय लेके चल जिंदिगी बचपन के गाँव में, संदली फिज़ाओं में पीपल की छांव में ।
6. डॉ जेन्नी शबनम पर्दे की ओट से इस तरह झाँकती है खिड़की मानो कोई देख न ले मन में आस भी और चाहत भी / काश कोई देख न ले ।
7. श्यामा अरोड़ा समझ कर हीन अपने पर स्वयं अन्याय न मत करिए, तुम्हारी शक्ति सारा विश्व चरणों में झुका देगी , उठो जागो तुम्हारे जागरण का वक्त आया है । तुम्हारी चेतना सोई मनुजता को जागा देगी ।
8. सुप्रिया सिंह वीना” – माँ की ममता का अमर कोश / कभी मिटा सका क्या मृत्युबोध / तेरी आँचल की छाया में / स्वछंद निडर अंजान डगर पर चलती थी ।
09. नवोदित आकांक्षा तिवारी माँ तू कितनी अच्छी है गीत सुनाया

10. निधि गौतम देख कर वीरों का जज्बा हम नतमस्तक होते हैं , इन वीरों की खातिर हम चैन से सोते हैं । -
सुन लिया, अब गुनो तो सही।
मनका अपने चुनो तो सही।
रूई अपने विचारों की तुम,
मित पहले धुनो तो सही।
हाथ में हाथ दो तो सही
साथ मैं हूँ चलो तो सही
फाड़ कर फेंक देना, मगर
ख़त को मेरे पढ़ो तो सही
आप बैठे हैं ख़ामोश क्यों
सुन रहे हैं, कहो तो सही
दो बदन, एक जां, एक रूह
कृष्ण-राधा बनो तो सही
तल्ख़ियाँ ख़त्म हो जाएंगी
कुछ कहो, कुछ सुनो तो सही
हर तसव्वुर की ताबीर हूँ
ख़्वाब तुम इक बुनो तो सही
चाँदनी, चाँद , पूनम की शब
और मैं हूँ , रुको तो सही ..........

Tuesday, September 27, 2016

ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है

जहां तक भारतीय अध्यात्मिक विषय से जुध विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाजमूर्ख और रूढ़िवादी हैं जैसा कि कथित सुधारवादी मानते हैं| जिस तरह पिछले साठ वर्षों से राजनीतिसामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को अपने जैसा ही जड़बुद्धि  ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीतिसमाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय महानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है।  जिस तरह एक व्यवसायी अपना आय देने वाला व्यवसाय नहीं बदलता वैसे ही यह पेशेवर सुधारवादी अपने विचार व्यवसाय नहीं बदल सकते क्योंकि वह उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा देता है|
 हांहम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दो  मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का वैसे ही  बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तबमनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क शक्ति  से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।
      अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिकसामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।
      बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।
      पिछले एक सदी से इस देश में  भाषाजातिधर्मऔर क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। इनमें से कईयों ने तो अपने संगठन दुकानों की तरह अपनी संतानों को दुकानों की तरह उत्तराधिकार में सौंपे| ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने केलिये उनका आभार मानते हैं।
      अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवाअध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।
      सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन हैअमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है जबकि  लोग तो शोर से प्रभावित होते हैं। ऐसा शोर  जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो कोई  व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही किया जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारीबालकवृद्धजवानबीमारभूखाबेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषाजातिधर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।
      मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। उसमें लोग  इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वहना नारों शोर होता  हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतनी  सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोषित  किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिकसीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।
      इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।

Monday, May 9, 2016

करै अणूंता खट करम ओढ धरम का चादरा ।

रूंख रूखाळा आपणा बिना गरज रा सीर ।
फळ पत्ता दे आपरा सब की मेटै पीर ॥
निपट स्वारथी मांनखा तू क्यूं काटै रूंख ।
बिन पाणी छायां बिना खुद तू ज्यासी सूख ॥
दो लोटा नित का घणां बाल बिरछ म घाल ।
बडो हूय बण ज्यावसी बो थारो रखवाळ ॥
पाणी थोङा नेह घणां आ बिरछां नै बांट ।
सौ गुणी कर देवसी कदे न करसी आंट ॥
ढोर जिनावर पांखिया अ'र मिनखां री देह ।
रूंख बांटसी आपरो सबनै बरोबर नेह ॥
तपै तावङो जेठ म बरसै जाण्यूं आग ।
एक रूंख ई मोकळो लागै जाण्यूं बाग ॥
सूनी धरती आपणी थानैं कहे पुकार ।
बिरछ लगावो मानखां कर म्हारो सिणगार ॥

सूनां सूनां टीबड़ा सूनां सूनां खेत ।

उभी दिखै खेजड़ी मन भर ज्यावै हेत ।।

करै अणूंता खट करम
ओढ धरम का चादरा ।
एड़ा मिनखां सूं आंतरो
सदा रांखजे भायला ।। १ ।।
मन की मन मं रांखणी
काढ न देणी हर खठ ।
मौको आयां बोलणूं
सदा भलेरो भायला ।। २ ।।
बोली का चोखा घणा
पहरै घाबा सांतरा ।
अंतस रा काळूंस को
बेरो पड़ै न भायला ।। ३ ।।
गांठ कदे न बांधणी
बांधेड़ी माड़ी घणी ।
फूट्यां पाछैं राद ज्यूं
फोड़ा घालै भायला ।। ४ ।।
बिरथ कदे न बोलणूं
बोल्यां पैली तोल ।
मोल बणा तू बोल को
याद रांखजे भायला ।।५ ।।
सवारथ री पैड़्यां चढ्या
मनवारां करसी घणी ।
मूंडो देख पिछाणबो
घणूं कुजरबो भायला ।।६ ।।
देख पराई परगति
दुरमत कदे न पाळणी ।
दरपण बण दिख जावसी
मूंडा उपर भायला ।। ७ ।।
मन काळा तन ऊजळा
बोली का चोखा घणां ।
घात करै विश्वास सूं
चेत रांखजे भायला ।। ८ ।।
हीणां जण हांकै घणां
धरै न कोई कान ।
लांठा जण एकर भखै
तुरत सुणीजै भायला ।। ९ ।।
भायां म बसबो भलो
हुवो भलां बै दूबळा ।
दूजा जण लांठा घणां
काम न आवै भायला ।। १० ।।
हक देवो थे हाकमां ,कैवै माटी बोल ।
आ वाणी राजस्थान री घणी है अनमोल ।।
दे द् यो थे अब मांनता , करल्यो थे अब कौल
आ वाणी राजस्थान री---------------------------
मीठा मोर पपीहा बोलै अमरत जेड़ी वाणी ।
मीठा सोगर कैर सांगरी मीठा ई गुड़ धाणी ।।
मीठा लागै जिणरै मिनखां रा बोल
आ वाणी राजस्थान री
रूप सुरंगो भेष सुरंगो घणी सुरंगी नारी ।
जिणरी खातर देव सुरग रा भी जावै बलिहारी ।।
मानो म्हारी बातां नै थे अब मन की गांठ्यां खोल
आ वाणी राजस्थान री
घणां स्नेही संत अठ्यांरा घणां सुहाणां तीरथ ।
घणां रसीला लोग अठ्यांरा घणी सोवणी सीरत ।।
बाजै मंदिर मं अलगोजा झांझर ढोल
आ वाणी राजस्थान री
मायङ भाषा आपणी
थांसूं करै पुकार ।
सुध लेवो नी बालकां
कद तक रैवूं लाचार ॥
संसद मं भेळा हुया
सांसद अबकी बार ।
एक मतौ कर मांगल्यो
अनुसूची अधिकार ॥
पुरातन सूं लेयकर
आधुनिक इतिहास ।
सामै रखद्यो खोलकर
पढल्यो महानुभाव ॥
नवरस भरी वाणी अठे
मिनखां रो सिणगार ।
तेज ताप भी मोकळो
लाज शरम गळहार ॥
धन की खातर धर्म छोड नै
ठेका घाल्या दारू का
कुल मर्यादा लारैं रहगी
ठहरै क्यांकै सारू बा
छोङ आपका देश धर्म नै
दो नंबर का काम करै
इज्जत की जिंदगानी छोडी
गंडक की सी मौत मरै
डरै अणूंता भला आदमी
डरता क्यूं भी बोलै नीं
देख्यां पैली आंख्यां मींचै
मूंडो पाछै खोलै नीं
खेतां पाची सिरस्यूंङी रै
कोई पाच्या गेहूं लाल
चीणां पाच्या सांतरा रै
कोई मेथी कर दी न्यहाल
पीपळ पून्यूं सामनै रै
कोई सामी आखातीज
ब्याव मांडस्यां ई सावै रै
कोई ल्यास्यां चोखी चीज
क बैरी बरसग्यो रै
जाण्यूं आय पङ्यो रै कोई काळ
क बेटा जाट का रै
देखां कियां हुवै तू मालामाल
गळगी सारी ढूंगरियां रै
कोई काळा पङग्या बीज
बुझग्या मन का दीवळा रै म्हांका
क्यां पर काढां खीज
क बीरा नणद का रै
अबकै आच्छी आई रै आखातीज
विश्वासां की डोर टूटगी
घर मं पङगी राङ ।
हेतभाव माटी मं रळगो
ऊंची करली बाङ ॥
चौपालां अब सूनी हुगी
गायब हुया गुवाङ ।
फुलवाङी की ठौङ कंटीला
उग आया अब झाङ ॥
मिनखाचारो भूल गया सब
ले सवारथ की गांठ ।
राजनीति री रोट्यां सेकै
गेर आपस मं आंट ॥
निजरांसामी जाय शरम अब
कर न सकां उपाय ।
की - की को विश्वास करां अब
बाङ खेत न खाय ॥

एक गादङा नै मरेङो हाथी मिलगो । सोची, चलो दो तीन महिना तो आराम ऊं निकळसी । पण हाथी को मोटो चाम कियां फाटै ।
च्यारूं मेरे घूम्यो जणां मांय घुसबा जती जगां मिलगी अर गादङो मांय घुसगो ।
निरा दिनां तांय मांय बङ्यो बङ्यो खाबो करियो पण टेम सारू हाथी को चमङो सूख'र कल्डो पङगो ।
अब मांय नै भोजन नींवङ्यां पछ गादङो बारै नै निकळबा की सोची पण ओ कांई ? मांय बङ्यो जकी जगां तो भेळी हूयनै सिकुङगी । अब कांई करै बो बैठ्यो बिचार करोय हो क बीनै आदमी बोलता सुणीज्या ।
गादङो उपाय सोचनै हेलो मारियो - "अरै भाई लोगां सुणो , मैं बनदेवता हुं ई हाथी कै खोबरा म तेल चढावो तो थानै काम की बात बतास्यूं ।"
आदमी जायनै तेल ल्यार खोबरा म गेर दियो ।
अब क्यूं तेल ऊं खाल नरम हुई क्यूं गादङो तेल म चीकणूं हुयो अर बो बारै नै आयगो ।
आदमी बोल्या -"अब बतावो बनदेवता काम की बात ।"
गादङो बोल्यो -"भायो काम की बात आ है कै ठाडाई म घुसबो तो घणूं सोरो है पण निकळबो दोरो जखो ठाडाई देखनै मांय बङबा की मनचली मनां कर लिज्यो ।"